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घास के ग्रीन कार्पेट के नीचे छुपी मौत और व्यवस्था का निर्लज्जपन

  घास के ग्रीन कार्पेट के नीचे छुपी मौत और व्यवस्था का निर्लज्जपन > प्रसंगवश/ संजय बेचैन शिवपुरी शहर की सबसे महंगी और वीआईपी कही जाने वाल...

 घास के ग्रीन कार्पेट के नीचे छुपी मौत और व्यवस्था का निर्लज्जपन

> प्रसंगवश/ संजय बेचैन


शिवपुरी शहर की सबसे महंगी और वीआईपी कही जाने वाली 'संतुष्टि कॉलोनी' में एक 12 साल की बच्ची सेप्टिक टैंक में समा गई। चार घंटे तक नलियों से सीवर खींचा गया, टॉर्च की रोशनी से टंकी में झांका गया, लोग हाथ जोड़कर प्रार्थना करते रहे और फिर रात 12:40 पर मासूम उत्सविका का शव निकला, जो अब जीवन नहीं था सिर्फ एक आंकड़ा बन गया, एक 'घटना'।

लेकिन क्या यह सिर्फ एक हादसा है?

नहीं।यह मौत नहीं, हत्या है और इसमें हत्यारा कोई एक व्यक्ति नहीं, बल्कि पूरी व्यवस्था है।

बच्ची की मौत उस लोहे के जंग लगे ढक्कन से नहीं हुई। उसकी मौत उन दस्तखतों से हुई जो बिना जांच किए कॉलोनी पास करते हैं।

उसकी मौत मात्र उस हरी घास के कालीन से नहीं हुई जो टैंक के ऊपर उगाई गई थी।

उसकी मौत उन अफसरों से हुई जो फाइलों में 'नक्शा संपूर्ण' लिखकर आराम से चाय पीते हैं।

उसकी मौत उन नेताओं के रवैये से हुई जो हादसे पर शोक तो जताते हैं, पर कभी निर्माण गुणवत्ता नहीं पूछते।

> ‘ संतुष्टि’ नहीं, यह सिस्टम की सड़ांध है

जिस कॉलोनी का नाम 'संतुष्टि' है, वहां एक बच्ची अपने ही घर के बाहर खेलते हुए मर गई और वह भी इसलिये कि कॉलोनाइजर ने सेप्टिक टैंक पर गार्डन बना दिया था, ताकि सौंदर्य बना रहे, जबकि नीचे 20 फीट गहरी मौत छुपी थी।

जब रहवासियों ने पहले भी इसकी शिकायत की, तो क्यों कोई नहीं सुनता?

क्या जब तक कोई मरे नहीं, तब तक प्रशासन कान नहीं खोलता?

शहर में रोज़ नई कॉलोनियां बसती हैं इनकी संख्या सैंकड़ों में है। उनमें सड़कों से पहले 'सेल ब्रोशर' तैयार होते हैं, सेफ्टी ऑडिट से पहले 'पजेशन लेटर' दिए जाते हैं, और लाइसेंसिंग से ज्यादा अहम रिश्वत का वजन होता है। इस भृष्ट सिस्टम में बड़े पोल खाते हैं इस हमाम में सब जिम्मेदार नंगे हैं।

> जिम्मेदारी तय नहीं होती, क्योंकि सब दोष में भागीदार हैं

कॉलोनाइजर कहेगा — "मैंने नक्शा पास कराया था।"

नगरपालिका कहेगी — "निर्माण की जिम्मेदारी कॉलोनाइजर की थी।"

टाउन एंड कंट्री प्लानिंग कहेगा — "नक्शे में टंकी तो थी ही नहीं!"

और प्रशासन कहेगा "हमने मामले को संज्ञान में लिया है..."

पर उस माँ से कोई नहीं पूछता जो चार घंटे तक सीवर के मुहाने पर बैठी रही, वह हर आवाज़ पर चौंकी, हर फूँक पर उम्मीद बाँधी और फिर अचानक जैसे उसका शरीर ही पत्थर हो गया।

> प्रशासनिक चुप्पी सबसे गहरी चीख है

इस घटना के बाद किसी अधिकारी ने सार्वजनिक रूप से यह नहीं कहा कि अब से हर कॉलोनी की सुरक्षा जांच होगी।

इसका मतलब साफ है — अगर मौत भी व्यवस्था को नहीं जगा सकती, तो और क्या जगा सकता है?

प्रसंग यह नहीं कि एक बच्ची मर गई, प्रसंग यह है कि हमारी संवेदना मर चुकी है।

हमने ऐसे समाज का निर्माण किया है जहाँ मासूम खेलते नहीं, मरते हैं। जहाँ टैंक सिर्फ मल नहीं, मौत से भरे हैं। जहाँ कॉलोनी केवल रियल एस्टेट मुनाफा है, जीवन की सुरक्षा नहीं।

उत्सविका अब कभी स्कूल नहीं जाएगी, वह कभी नीट की तैयारी नहीं करेगी, कभी कॉलेज नहीं पढ़ेगी, परंतु

क्या हमारी नीतियाँ और अफसर अब भी 'संतुष्ट' रहेंगे?

> अब सवाल हमें उठाना है

कितनी उत्सविकाएँ मरेंगी तब जाकर कानून जागेगा?

कब खड़ी होगी वो पहली कॉलोनी जो पास होने से पहले सेफ्टी टेस्ट से गुज़रेगी?

कब मिलेगा किसी मासूम को वह हक़ कि वह अपने घर के गार्डन में खेल सके बिना गड्ढे में गिरे?

इस मौत को हम यूं ही "हादसा" कहकर भूल गए तो अगली बारी किसी और की बेटी की होगी।

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